एक दिन एक मुर्गे को बड़ा अहंकार चढ़ा, उसे लगा की मै बांग देता हु तभी सूरज निकलता हा, और फिर मनुष्य उठाते है , अपने काम करते है पैसे कमाते है , बच्चे स्कूल में जाते है, अगर मैं एक दिन भी बांग नही दिया तो ये सारे सोते ही रहेंगे , इनकी दिनचर्या रूक जायेगी , मैं ही इनका सहारा हु, ऐसा वह मुर्गा सोचने लगा , फिर उसने सोचा की कल मैं बांग ही नही देता हु , देखता हु की ये सब कैसे उठाते है, सूरज कैसे निकलता है, कल चारो तरफ अंधेरा ही रहेगा , यह सोचकर उसने सुबह की बांग नही दी , और हसने लगा की अब सोते ही रहो, कुछ समय बाद देखा तो सूरज निकल आया , उसे समझ नहीं आया की ये कैसे हुवा, कुछ समय बाद मनुष्य भी उठ जाए, बच्चे उठे , सभी रोज के तरह अपने अपने काम करने लगे , बच्चे स्कूल गए , सबकुछ वैसे की वैसे चल रहा था , यह देख मुर्गे को अपने मूर्खता पे हसी आई , और उसका अहंकार भी टूट गया , और वह समझ गया की किसी के रहने से या जा ने से कुछ चीजे नही बदलती, और इसका किसिपे कोई फर्क भी नही पड़ता।
इस कहानी का बोध। हम नैसर्गिक रचना को कभी भी बदल नही सकते , और चलते रहना यही जीवन का नाम है।
!!धन्यवाद!!
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