दो फकीर की कहानी हे .गुरु और शिष्य बुडा गुरु और युवा शिष्य . दोन्ही जंगल मे साथ रहते थे . रोज कीसी भी गाव मे जाके भगवान के नाम का प्रचार प्रवचन करते थे . ऐसा उनका रोज का ही काम . एक दिन शिष्य ने देखा की गुरु के चेहरे पर कुछ बदलाव दिखाई दे रहा है . कुछ चिंतीत कुछ परेशान नजर आ रहे है . स्वभाव मे कुछ बदलाव सा दिख रहा था .जो कभी ना देखा इतने साल मे उसे कुछ दिनो से गुरू के चेहरे पे दिखाई पडा,पर कुछ बोला नही, देखता ही रहा .झोली में गुरु का जी अटका था . बार-बार गुरु अपनी झोली को टटोल रहा है . कुछ दिन ऐसा ही चलता रहा . गुरू की झोली जादातर शिष्य ही डोता था पर कुछ दोनो से गुरू ही झोली को डोने लगा. फिर एक दिन शिष्य ने सोचा की आज देखता हु की इस झोली मे ऐेसा क्या हे.कीस कारन गुरु परेशान है . वे ऐसे ही जंगल मे सफर करते समय वे दोनो एक कुवे के जगह रूक गये . गुरूने झोली कुवे के पास रखी और शिष्य को कहां जरा ध्यान रखना . मे जाके मंत्र जाप करता हु हात मुह धोके झोली ले आना . शिष्य ने झोली मे सोने की एक इट देखी. उसे .देख शिष्य को गुरू के चिंता का कारण समझ आया . उसने उस ईट को उस कुवे मे फेंक दीय और उसके वजन के बराबर एक पथ्यर रख दिया . अब दोनो जंगल के रास्ते से चल पडे . गुरु ने शिष्य से आप नी झोली वापस लेली .. और झोली को सीने से लगा कर चलने लगा . गुरु अपने शिष्य से कह रहा था की कही दूर गाव भी नजर नही आ रहा है . क ही दुर किसी गाव की लाईट भी नही दीख रही है . आमावस की अंधेरी रात है . चोर लुटेरो का डर भी है . यह सुन के शिष्य हसे . ऐसा ही गुरू कुछ क हे तो शिष्य हसे . दो मील चलने के बाद . गुरु ने शिष्य को हसने का कारण पुछा . तभी शिष्य ने कहां तुम्हारी चिंता तो मै उस कुव्वे मे फेंक आया . यह सुनकर गुरु की सासे थंब गयी, गहरा सदमा पहुचा . पैरो के नोचे से जमीन खीसक गयी . कुछ समय गुरु स्तब्ध रह गया . क्या कहु कुछ समझ नाही आ रहा था गुरु को . फिर कुछ पल . भर मे बोध भी हुवा . की दो मील तक मे पथ्थर डोता रहा . यह सोच कर की इसमे साने की इट हे . मे कीस भ्रांती मे था . मै मोह की भ्रांती मे था . जींदगी भर मे इसी मोह मे रहता की यह सोने की इट है . और मे पथ्थर को दो मील सोना समझता रहा . मोह इट मे नही था .मेरे भ्रांती मे था . मोह . इट मे होता तो इस दो मील तक मोह का कुछ कारन ना था चींता की कोई वजह न थी . मेरी आसक्ती मेरे भीतर थी बाहर के इट मे नही . जींदगी भर भी आसक्त बना रहता था अगर ये भ्रांती बनी रहती की ये इट सोने की है . ओर तकक्षण भ्राती तूट गई जब ये जान की इट पथ्थर की है सोने की नही . झोला वही गीरा दिया और खील खीला के हस दीया . वही बैटा अब कहां जाना है अब कोई गांव नही डूडना . अब यही वृक्ष के नीचे विश्राम करेंगे रात भी बहुत हो गई है . शिष्य ने कहां अंधेरा बहुत है गाव भी नजर नही आ रह हे चोर तुटेरे लफंगे इनका भी डर हे . गुरु ने कहा चुप कर अब कैसा डर अब केसी चिंता सोना तो नही है हमारे पास . तो लटने वाल भी क्या लुटेंगा. आज तो मे बडे आराम से सोवुंगा . इसे हम छुटना कहते है. छोडा नही छुटा . फीर बोध हुवा सब उपद्रव भीतर है बाहर नही.
समझ :--सब उपद्रव भीतर है बाहर नही। अगर हम भितर से सक्षम रहे, स्थिर रहे तो कोइ भि मोह मया चिन्त हमरा कुछ नहि बिगड सकति है।